चुनाव दर चुनाव जनाधार खो रही है समाजवादी पार्टी
दीपक नारंग
वरिष्ठ संवाददाता
समाजवादी पार्टी चुनाव दर चुनाव खो रही है जनाधार
2019 लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में मिली भारतीय जनता पार्टी की जीत को लेकर सबसे ज्यादा चर्चा हो रही है । क्योंकि देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में सियासत के चिर परिचित प्रतिद्वंदी समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने गठबंधन करके मोदी के खिलाफ चुनाव।
दोनों दलों ने 38 और 37 सीटों पर अपने प्रत्याशियों को उतार कर चुनाव लड़ा। ज़ीरो पायदान पर बसपा सपा से आगे निकल गई। इस चुनाव में बसपा को 10 सीटें गठबंधन की बदौलत मिल गई वरना नतीजे बता रहे हैं कि बसपा की स्थिति 2014 से बदतर होती । मगर सियासत के कच्चे खिलाड़ी अखिलेश यादव की मेहरबानी ने मायावती को संजीवनी दे दी। खैर, सपा 2014 के लोकसभा चुनाव के नतीजे से एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाई। 5 सीटें बमुश्किल जीत सकी । यहां तक कि सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव को आजमगढ़ में जातीय तिकड़मबाजी से जीत मिल सकी ,वरना उमाकांत यादव चुनावी मैदान में होते तो नतीजा कुछ और होता,फिलहाल कद्दावर नेता मुलायम सिंह यादव अपने राजनीतिक करियर में सबसे कम वोटों के अंतर से जीत सके ,इसे कहते हैं ऑक्सीजन पॉलिटिक्स ।
लोकसभा में सपा का स्वर्णिम काल
2004 में देश के सबसे बड़े क्षेत्रीय राजनीतिक दल के तौर पर उभरने वाली समाजवादी पार्टी आखिर 2019 के लोकसभा चुनाव में नेस्तनाबूद क्यों हो गई?
इसके पृष्ठभूमि को भी देखना बहुत जरूरी है संघर्षशील किसान नेता मुलायम सिंह ने 4 अक्टूबर 1992 को समाजवादी जनता पार्टी से अलग होकर समाजवादी पार्टी का गठन किया और चुनाव दर चुनाव कामयाबी हासिल करते चले गए ,2004 लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी देश के सबसे बड़े क्षेत्रीय दल के तौर पर उभरी। और यूपी में समाजवादी पार्टी के 36 सीटें जीती। इतना ही नहीं, उत्तराखंड के हरिद्वार लोकसभा सीट पर पार्टी ने फहत हासिल करके विरोधियों को चौका दिया। 2005 में कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री बंगारप्पा समाजवादी पार्टी में शामिल हुए और अपनी शिमोगा सीट से समाजवादी पार्टी के टिकट पर जीत कर संसद पहुंचे । यह मुलायम सिंह की कामयाबी थी।
मगर 2009 समाजवादी पार्टी को सिर्फ यूपी के 23 लोकसभा सीटों में जीत हासिल हुई और फिर सिलसिला सिमटता चला गया। 2014 में मोदी लहर के दौरान सपा 5 सीटों पर लुढ़क गई
आखिर इतनी बुरी तरह से सपा क्यों हारी।
25 साल की अदावत को भूलाकर अखिलेश यादव ने बसपा से हाथ मिला लिया । 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा बसपा गठबंधन क्यों फ्लॉप हुआ ।इसके राजनीतिक कारण खोजे जा रहे हैं इसके कई कारण है मोदी के खिलाफ गठबंधन कोई साफ विजन लेकर नहीं आ पाया। सब कुछ दांव पर लगा कर अखिलेश ने बसपा से गठबंधन कर लिया गठबंधन कार्यकर्ताओं को रास नहीं आया 2014 से सपा के टिकट पर चुनाव लड़ने की आस लगाकर बैठे कार्यकर्ताओं को चुनाव के पहले ही मायूसी हाथ लगी। सपा के 43 सीटों के दावेदारों ने चुप्पी साध ली और गठबंधन बेमेल करार दे दिया अखिलेश सही प्रत्याशियों का चुनाव नहीं कर सके । जहां देश में राष्ट्रवाद की लहर चल रही थी वही सपा बसपा गठबंधन सिर्फ जाति की राजनीति को लेकर चुनावी मैदान में उतरा जिसको सभी तबके के मतदाताओं ने नकार दिया
आधी अधूरी तैयारी के साथ चुनाव में उतरे, मतदाताओं का मूड भागने में नाकाम रहे भाजपा जहां युवाओं को रिझाने में लगी थी वही गठबंधन सिर्फ 40 साल पुरानी जातिगत आंकड़े के आधार पर चुनाव लड़ रहे थे
2019 के लोकसभा चुनाव के हारने की सबसे बड़ी वजह यह थी कि मायावती और अखिलेश यादव इस चुनाव को बहुत हल्के में लिया। वे यह समझ कर बैठे थे कि जातियां उनकी वोट बैंक है। लेकिन वे भूल गए जाति वोट बैंक की राजनीति से युवा बाहर निकल चुका है जो भाजपा को जिताने के लिए काफी था।
जनता के मुद्दों से भटकी सपा
अखिलेश यादव 2019 के लोकसभा चुनाव में जनता का मूड बाप ने में नाकाम रहे। दरअसल आम लोगों का गुस्सा यह भी रहा कि अखिलेश यादव की राजनीतिक छवि काफी साफ-सुथरी है । एन केन प्रकारेण सत्ता पर काबिज होने के लिए चुनाव लड़ने वाली मायावती के साथ समझौता कर लिया । अखिलेश यादव ने जननायक कहे जाने वाले मुलायम सिंह को दरकिनार करके मायावती को प्रधानमंत्री की दौड़ में शामिल करा दिया । यह बात मतदाताओं को पची नहीं , जो पार्टी के समर्थक थे उन्होंने अखिलेश यादव के गठबंधन के फैसले से बिदक गया ।
केंद्र सरकार की 5 साल की नाकामियों पर चर्चा होने की जगह सिर्फ मोदी को हटाने पर ही गठबंधन जोर देता रहा बंधन मोदी का कोई विकल्प मतदाताओं को नहीं बता पाया जब पूरा देश जब पूरे देश में जातिवाद के खिलाफ लहर बन रही थी तो मायावती और अखिलेश अतियात में विश्वास में एसी की कमरों में बैठकर जातियों की गणित लगा रहे थे
परिवारवाद से निकलना होगा बाहर
दरअसल मुलायम सिंह ने तमाम दुश्वारियां के बाद भी समाजवादी पार्टी को ऐसे मुकाम पर खड़ा किया था । की पार्टी देश के क्षेत्रीय पार्टियों में से पहली पोजीशन पर थी ,लेकिन जिस तरह से चुनाव दर चुनाव पार्टी सिमटी जा रही है, ऐसे में पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव की कार्यप्रणाली पर सवाल उठना लाजमी है । क्योंकि अखिलेश यादव अपने कुनबे को भी नहीं बचा पाए ,कुनबे के मुखिया मुलायम सिंह यादव जहां अलग-थलग पड़ गए। वही अखिलेश यादव के चाचा शिवपाल ने पूरे प्रदेश में समाजवादी पार्टी के खिलाफ बिगुल फूंक दिया। बात गठबंधन की ही रही है तो बसपा की बात करना भी लाजमी है 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा को 1 सीट भी नहीं मिली। बसपा सुप्रीमो मायावती ने भाजपा, सपा, कांग्रेस के साथ अन्य राजनीतिक दलों को दरकिनार करके बड़ी उम्मीद के साथ 2017 का विधानसभा चुनाव लड़ा। मदर पार्टी 19 सीटों पर सिमट कर रह गई लेकिन आज की युवा पीढ़ी को बसपा की सियासत समझ में नहीं आ रही है । यही बात अखिलेश यादव समझने में नाकाम रहे की युवाओं को ऐसा लीडर नहीं चाहिए जो मंच पर अकेले खड़ा हो और एक चिट्ठी लेकर आए ,उसको पढ़े और चला जाए । क्योंकि मायावती इसी तरह की सियासत करती हैं जिसे आज का युवा पसंद नहीं करता । बसपा बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर के सिद्धांतों पर चलने का दावा करती है । मगर बसपा का मूल सिद्धांत सिर्फ सत्ता पर काबिज होना रह गया है ।जनता के लिए संघर्ष करना और जनता के मुद्दों को उठाने में यकीन नहीं करती हैं। जिसका नतीजा सबके सामने है।
आखिर अखिलेश यादव ने किस हैसियत के साथ बसपा से समझौता कर लिया या जांबाज कार्यकर्ताओं के गले उतर ही नहीं जबकि गठबंधन टूट गया है अखिलेश यादव राजनीतिक तौर पर एक फैसला करने में चूक गए कि अगर 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा के लिए चुनाव नहीं लड़ते तो बसपा पूरी तरह से साफ हो जाती
बसपा का वोट सपा के दूसरे राजनीतिक दलों में डिवाइड हो जाता । अगर अखिलेश यादव जीतते तो उनका महिमामंडन होता। मगर अगर वे हार भी जाते तो हार कर भी वे एक नेता के तौर पर उभर कर सामने आते। तो इस समय जीत और हार दोनों ही स्थितियों में सपा सुर्खियों में होती ।
पार्टी का करना होगा विस्तार
अखिलेश यादव को एक प्रदेश का नेता के तौर पर नहीं देखा जाता था उनको हिंदी भाषी क्षेत्रों का राष्ट्रीय स्तर का नेता देखा जाता था । लेकिन मायावती के साथ समझौता करके उन्होंने अपनी राजनीति हैसियत को कम किया । बल्कि अपनी छवि को भी धूमिल कर लिया पार्टी को भी रसातल में ले कर चले गए। कार्यकर्ताओं के मनोबल को तोड़ा ।अखिलेश यादव ने अपना कुनबा भी खो दिया । अखिलेश यादव ने ऐसी कौन सी मजबूरी में बसपा के साथ समझौता करने का फ़ैसला । आबाद समझ के परे है 2014 के लोकसभा चुनाव में जहां सपा उम्मीदवार दूसरे नंबर पर थे मिसाल के तौर पर बिजनौर और नगीना जैसी सीटें उसको अखिलेश ने मायावती को दे दिया
यह बात कार्यकर्ताओं के समझ में नहीं आई । और अखिलेश यादव गलतफहमी में रह गए कि दलितों, पिछड़ों ,अति पिछड़ों का एक समूह भाजपा को हरा सकता है। पीएम मोदी को नेस्तनाबूद कर सकता है
अखिलेश इस बात को समझने में भी नाकाम रह गये । कि जिस देश में राष्ट्रवाद के नाम चुनाव लड़ा जा रहा था वे दोनों नेता सिर्फ जातियों की दुहाई दे रहे थे।
दूसरी तरफ सर्जिकल स्ट्राइक और पाकिस्तान के खिलाफ जमकर बयानबाजी हो रही थी वही गठबंधन मोदी हटाओ की बात कर रहा था मोदी सरकार की क्या नाकामियां थी इस पर नजर ही नहीं गई
जिसकी वजह से सपा को भारी नुकसान हुआ दरअसल सपा और बसपा ने 40 साल पुराने पैटर्न पर चुनाव लड़ा । और भाजपा ने 40 साल आगे के पैटर्न पर चुनाव
एसी के कमरों में बैठकर जाति का गुणा भाग लगाकर अब चुनाव नहीं लड़ा जा सकता। वक्त बदल चुका। इसी गफलत में अखिलेश रह गए। वे चुनाव पूरी तरह से हारे ही नहीं बल्कि सब कुछ खो गए।
राजनीति में आप जनता के मुद्दों के लिए संघर्ष करो ,तो जनता खुद आपको सत्ता देगी ,अगर आप सत्ता के लिए संघर्ष करोगे तो जनता आपको सत्ता पर काबिज नहीं होने देगी
बसपा का सिद्धांत सिर्फ सत्ता पर काबिज होना है जनता के मुद्दों को उठाना नहीं ,पिछड़ी जाति के लोगों को लगा कि अगर मायावती और अखिलेश भी जाते हैं तो वे सही तरीके से काम नहीं कर पाएंगे
जनता ने इस बात को भांप लिया कि यह गठबंधन बहुत दिन तक नहीं चल सकता। इसलिए इन दोनों को पूरी तरह से हरा दिया क्योंकि मायावती का इतिहास यही रहा है कि वे बहुत दिनों तक किसी भी राजनीतिक दल के साथ गठबंधन नहीं रखती हैं । जब उनका स्वार्थ सिद्ध हो जाता है तो गठबंधन तोड़ देती हैं । छह छह महीने के लिए उन्होंने सरकार बनाई । जब 6 महीना मायावती मुख्यमंत्री थी तो भाजपा ने उनको समर्थन दिया लेकिन जब भाजपा की सरकार बनी तो 3 महीने में मायावती ने भाजपा से अपना समर्थन वापस ले लिया था ।
ना मायावती और ना ही अखिलेश जनता को यह बता सके कि आखिर वे किन मुद्दों के साथ चुनावी मैदान में है। फिलहाल अखिलेश यादव यूपी में अपना ब्रह्मास्त्र भी चला चुके हैं । कांग्रेस के साथ हुआ उनका प्रयोग फेल हो चुका है ।
अखिलेश ने एक और चुनौती बना ली ।
अब यूपी में अखिलेश यादव के लिए किसी तरह का कोई गठबंधन की पार्टी नहीं बची है मुलायम सिंह कहते थे एकला चलो अब शायद एकला चलने का वक्त आ गया है इतिहास वक्त को दोहराता है मायावती को अखिलेश यादव ने संजीवनी तो दे दी । लेकिन जिस संजीवनी की उनको खुद जरूरत थी वे उसे गवां गए ।
डॉ राम मनोहर लोहिया कहते थे जिस देश की सड़के सुनी होगी उसके सांसद आवारा हो जाएंगे समाजवादी पार्टी पिछले 5 साल में कोई ऐसा जन आंदोलन नहीं चला सकी जिससे वह दलितों पिछडों या अति पिछड़ों को जोड़ कर रख सके ।
काठ की हांडी बार बार नहीं चढ़ती है अब सपा बसपा गठबंधन का कोई वजूद नहीं है।एक बार यह प्रयोग हो चुका है और इसका नतीजा सिफर है ऐसे में इस गठबंधन का अब कोई अस्तित्व नहीं है
मायावती के पद चिन्हों पर चलना अखिलेश यादव के लिए अच्छी बात नहीं है । अखिलेश यादव को 15 सालों तक यूपी में किसी भी पार्टी से समझौता करने की जरूरत नहीं है । 15 साल के बाद चलने की जरूरत थी ।अब अखिलेश यादव को करना क्या चाहिए अब सपा को क्या करना चाहिए।
2022 के विधानसभा चुनाव के लिए अकेले सभी सीटों पर चुनाव लड़ना होगा। प्रदेश सरकार की नाकामियों को लेकर जन आंदोलन चलाने की चाहिए ।
सिर्फ एक जाति के नेता की छवि से बाहर निकलना होगा। पिछड़ी जाति के नेता ना होकर उन्हें सर्वमान्य नेता बनने की जरूरत है। अपने संगठन को मजबूत करने की जरूरत है। साथ ही सिर्फ अकेले सारा फैसला लेंगे तो काम नहीं होगा इसके लिए अलग अलग पदाधिकारियों को जिम्मेदारी भी देने की जरूरत है।
जैसे महिला संगठन की जिम्मेदारी अलग, युवा संगठन की जिम्मेदारी अलग ,व्यापारी, छात्र, किसान, अल्पसंख्यक सभी वर्गों के नेताओं की अलग-अलग जिम्मेदारी देनी होगी । और उन जिम्मेदारियों से खुद अलग रहकर पार्टी को चलाना होगा । अगर सारे संगठनों की जिम्मेदारी खुद निभाएंगे तो पार्टी का हाल वही होगा जो दो चुनाव में हो रहा है । सभी प्रदेशों के अलग से प्रभारी प्रदेश अध्यक्ष, संगठन मजबूत करने की जिम्मेदारी देनी होगी। मिसाल के तौर पर उत्तराखंड में गठबंधन के तहत चुनाव लड़ा गया । 4 सीटों पर बसपा ने अपने प्रत्याशी उतार दिए । लेकिन सपा एक सीट पर भी अपने प्रत्याशी नहीं उतार सकी । हैरानी की बात तो यह रही कि लोकसभा का चुनाव गठबंधन के तहत लड़ा गया । लेकिन प्रदेश में सपा की कार्यकारिणी 3 महीने से भंग थी । इसी तरह से पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ ,बिहार ,झारखंड, पश्चिम बंगाल और यहां तक कि महाराष्ट्र जैसे राज्यों में भी अलग से प्रदेश प्रभारी और जुझारू विश्वासपात्र कुशल रणनीतिकार प्रभारियों की नियुक्ति करने की जरूरत है ।
फिलहाल अगर एसी कमरों में बैठकर सिर्फ जातीय आधार पर चुनाव लड़ने की गुणा भाग लगेगा रहेगा तो पार्टी रसातल में गिरती जाएगी ।और वैसे ही होगा जैसे इतिहास बता रहा है। पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला के उत्तराधिकारी बेटों का क्या हाल है । बिहार में लालू प्रसाद यादव के बेटे तजस्वी, चौधरी चरण सिंह के बेटे अजीत सिंह और उनके बेटे जयंत चौधरी , राजीव गांधी के बेटे राहुल गांधी और मुलायम सिंह बेटे अखिलेश यादव भी उसी श्रेणी में है । बेहतर होगा कि अखिलेश यादव युवा जुझारू और स्वच्छ छवि के नेता है वो राष्ट्रीय स्तर के नेता बनने की दिशा में कदम उठाएं । हिंदी भाषी राज्यों के लोग उनको राष्ट्रीय स्तर पर देखने के लिए आज भी नजरें लगाए बैठे हैं ।