कुछ तुम्हारी कुछ मेरी कुछ हम सबकी बेबसी का आलम ही कुछ यूं है

बेबसी
नेहा लेखिका
कुछ मेरी कुछ तुम्हारी, कुछ हम सबकी। बेबसी का आलम ही कुछ यूं है कि हर इंसान गिरफ्तार है इसमें।जो चाहो वो न कर पाने की बेबसी, दुनिया के कदमों के साथ न कदम मिलाने की बेबसी।
दर्द सहने की, चुप रहने की बेबसी सपनों को सच न कर पाने की बेबसी। किसी को न भुलाने की बेबसी। भूला के न याद करने की बेबसी। दर्द में भी मुस्कुराने की, सब सुन के न समझ पाने की, जो है वो नहीं और जो नहीं है वही चाहने की बेबसी।
क्यों है और कब खत्म होगी ये बेबसी! आँखों मे आँसू है उसे न छलकाने की बेबसी।आगाज है या अंजाम है ये भी न समझ पाने की, चाहतो को दिल मे दबाने की, और नफरतों को न दिखाने की बेबसी। बेबसी है फिर भी थकान नहीं, चेहरे पे मुस्कान है, हर इंसान यहां एक समान है। दर्द सभी को होता है। हर इंसान रोता है क्योंकि हर इंसान बेबस है कुछ न कुछ कर जाने को।
क्या था जो तुमने कह दिया
क्या था जो तुमने कह दिया
क्या था जो मैंने सुना नहीं
क्यों सुनना सिर्फ मुझे है
क्यों चुनना सिर्फ मुझे है
क्या रिश्ता अकेले मेरा है
क्या कसमें अकेली मेरी है
ज़िंदगी अच्छी थी बना दी
तुमने पहेली है।
सुबह से शाम तक खास
से आम तक सिर्फ तुम्हीं
तो थे।दर्द तुम्हें हुआ सहा
मैंने था।
मेरे पास वक़्त नहीं
कहा जो तुमने था
उसे समझा तो मैंने ही
तुम्हारे गम मेरे थे
तुम्हारा परिवार मेरा था
सब सेह के चुप रह के
जो कहा तुमने वो सुना तो
मैंने ही।अपना सब तुझे दे
दिया, अपने नाम को भी
पराया किया।जिन सबको अपना
कहती रही उनमे कुछ भी मेरा नहीं
तुमने ही बतलाया था।
फिर भी मैं सुनती रही
जो कहा तुमने ही था।
अब नहीं हो आज़ाद कहने
को कुछ , नहीं सुनना जो भी
तुमने कहा।
क्यों सहु क्यों चुप रहूं
अब इन बेरियों को तोड़ूंगी
अब मैं ही बोलूँगी।