राम जन्मभूमि का इतिहास तथ्य और महत्व

राम जन्मभूमि का इतिहास तथ्य और महत्व
रक्षित ,लेखक, गाजियाबाद
राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद ने लंबे समय तक भारतीय समाज, राजनीति और धर्म को प्रभावित किया है। जब कल प्रधानमंत्री मोदी मंदिर की नींव रखने वाले हैं, इस ऐतिहासिक विवाद के बारे में जान लेना भी ज़रूरी है।
मंदिर से जुड़े संदर्भ
हिंदू धार्मिक ग्रंथ रामायण के अनुसार सरयू नदी के किनारे स्थित अयोध्या नाम की नगरी को भगवान राम का जन्म स्थल माना जाता है|
वहीं दूसरी ओर बाबरी मस्जिद का निर्माण वर्ष 1528-29 माना गया है जिसे बाबर के सेनापति मीर बाकी द्वारा बनाया गया।
अनेक विदेशी यात्रियों ने भी अपने यात्रा वृतांत में इस स्थल का जिक्र किया है|
1611 में अयोध्या पहुंचे अंग्रेज यात्री विलियम फिंच ने रानीचंद(रामचंद्र) किले के खंडहर को दर्ज किया है लेकिन उसी स्थान पर मस्जिद होने का कोई जिक्र नहीं किया है|
1634 में थॉमस हर्बर्ट नाम के यात्री रानीचंद नाम के एक बहुत पुराने किले का जिक्र करते हैं|
बाबा लाल दास अपनी कृति अवध-विलास में जन्म स्थान का वर्णन तो करते हैं लेकिन किसी मंदिर या किले के होने का कोई जिक्र नहीं है|
1717 में राजा जयसिंह उसी स्थल के आसपास की जमीन खरीदते हैं| जमीन के दस्तावेजों में मस्जिद का जिक्र है|
ईसाई मिशनरी जोसेफ टीएफेन्थलेर 1766 से 71 के दौरान अयोध्या का दौरा करते हैं और लिखते हैं कि रामकोट नाम के किले को बाबर या औरंगजेब द्वारा नष्ट किया गया| इसमें वह घर भी शामिल था जिसे हिंदू अनुयायी भगवान राम का जन्म स्थान मानते हैं| वे आगे लिखते हैं कि उस स्थान पर मस्जिद का निर्माण किया गया लेकिन हिंदू एक मिट्टी के टीले को पूजना जारी रखते हैं जिसे भगवान राम का जन्म स्थान माना जाता है|
इन सभी संदर्भों से माना जा सकता है कि उस स्थल में हिंदुओं की आस्था पुराने समय से थी और बाद में वहां मस्जिद का निर्माण किया गया।
दावे प्रति दावे
हिंदू अनुयायियों और इतिहासकारों का एक हिस्सा मानता है कि बाबरी मस्जिद से पहले उसी स्थान पर भगवान राम का मंदिर था जिसे गिराकर मस्जिद का निर्माण किया गया जो इस्लाम के सिद्धांतों के विरुद्ध था।
वही कुछ मुस्लिम अनुयायिओं और इतिहासकारों का कहना है कि प्राचीन इतिहास में उस स्थान पर मंदिर होने के कोई साक्ष्य मौजूद नहीं है बल्कि विदेशी यात्रियों के यात्रा वृतांतों में मंदिर से जुड़े संदर्भ 18 वीं सदी के शुरुआत में जोड़े गए और उन्हें बार-बार बदला गया।
कई आलोचकों का यह भी कहना है कि प्राचीन काल में अयोध्या नगरी में बौद्ध धर्म का प्रभाव था। इतिहासकार रोमिला थापर के अनुसार, अगर हिंदू धार्मिक ग्रंथों को छोड़ दिया जाए, तो प्राचीन इतिहास में अयोध्या का पहला जिक्र सातवीं सदी के दौरान मिलता है जब चीनी तीर्थयात्री ह्वेन त्सांग लगभग 3000 बौद्ध भिक्षुओं का जिक्र करते हैं।
कुछ शिक्षाविदों का यह भी मानना है कि अवध और अयोध्या में इस्लाम का प्रभाव 16 वीं शताब्दी से भी पहले से था जिसका बड़ा कारण सूफी संत और उनकी शिक्षाएं थी जिससे प्रभावित होकर हिंदू अनुयायियों की निचली जातियों ने इस्लाम का रुख किया।
सबसे लंबी कानूनी लड़ाई
1853 में निर्मोही अखाड़े से जुड़े एक समूह ने मस्जिद पर कब्जा करने की कोशिश की जिसके बाद आधिकारिक रूप से पहली बार इस विवाद को लेकर धर्म आधारित हिंसा देखने को मिली|
स्थिति को सँभालने और दोनों पक्षों को संतुष्ट करने के लिए प्रशासन ने मस्जिद परिसर को दो हिस्सों में बांटने का फैसला किया| अंदरूनी हिस्से का इस्तेमाल मुस्लिम पक्ष मस्जिद जाने के लिए करता था वहीं बाहरी हिस्से का इस्तेमाल हिंदू पक्ष पूजा पाठ से जुड़ी गतिविधियों के लिए करता था।
1883 में हिंदू पक्ष ने मिट्टी के चबूतरे पर मंदिर बनाने की कोशिश की, लेकिन प्रशासन ने इसकी अनुमति नहीं दी, जिसके बाद 29 जनवरी 1885 को जनम स्थान अयोध्या के महंत के तौर पर रघुबर दास ने कोर्ट में सिविल वाद दायर कर राम चबूतरे पर एक मंदिर बनाने की अनुमति मांगी। साथ ही चबूतरे का आकार भी स्पष्ट किया लेकिन इसमें उन्होंने मस्जिद के नीचे भगवान राम के जनम स्थान होने का दावा नहीं किया।
24 दिसंबर 1885 को फैज़ाबाद कोर्ट के सब जज पंडित हरी किशन सिंह ने वाद ख़ारिज कर दिया।
1886 में मामला ऊपरी कोर्ट पहुंचा। अयोध्या प्रशासन यह मानता था की विवादित स्थान पर पहले मंदिर था।जिसे बाबर ने गिरा कर उसी के ऊपर मस्जिद का निर्माण किया था| लेकिन कोर्ट ने भविष्य में धर्म आधारित हिंसा की संभावना जताते हुए कहा कि राम चबूतरा मस्जिद परिसर में ही स्थित है और 360 साल पहले गिराए गए मंदिर के पुनर्निर्माण की अनुमति देना सही नहीं होगा।
1886 से 1934 के दौरान स्थिति नियंत्रण में रही| 1934 में अयोध्या के पास स्थित एक गांव में गौ हत्या को लेकर दंगे भड़के और उसी दौरान मस्जिद को भी नुकसान पहुंचाया गया जिसकी बाद में सरकार के खर्च पर मरम्मत की गई|
लेकिन 1949 में राम और सीता की मूर्तियां मस्जिद में रख दी गई जिसके बाद सैकड़ों की संख्या में हिंदू श्रद्धालु अयोध्या पहुंचने लगे।जिसके बाद सरकार ने स्थल को विवादित घोषित कर दिया और मस्जिद के परिसर को सील कर दिया गया जिसके बाद मस्जिद में नमाज़ और राम चबूतरे पर पूजा रुक गयी।
इस फैसले के खिलाफ 1950 में निर्मोही अखाड़े के रामचंद्र परमहंस ने परिसर खोलने और पूजा अर्चना जारी रखने की मांग के साथ कोर्ट का रुख किया। गोपाल विशारद ने भी राम लला की पूजा का अधिकार मांगते हुए फैज़ाबाद ज़िला न्यायालय में वाद दायर किया।
अब तक जो विवाद मस्जिद परिसर में स्थित राम चबूतरे तक सीमित था, मूर्तियां रखने के बाद वह प्रभावी रूप से मस्जिद तक बढ़ गया।
ज़िला न्यायालय ने मूर्तियां हटाने पर रोक लगा दी लेकिन पूजा के अधिकार पर कोई फैसला नहीं दिया। अपने अपने दावों के साथ इस विवाद में हिन्दू-मुस्लिम पक्षकार बढ़ते गए और मामले को इलाहाबाद उच्च न्यायलय स्थानांतरित कर दिया गया।
कोर्ट के आदेश पर ही पूजा के लिए परिसर को खोल दिया गया। लेकिन 6 दिसंबर 1992 को मंदिर समर्थकों ने मस्जिद को ढहा दिया जिसके बाद देश में दंगे भड़क गए और लगभग 2000 लोगों को जान गवानी पड़ी।
मस्जिद विध्वंस के कारणों और जिम्मेदारो का पता लगाने के लिए भारत सरकार द्वारा रिटायर्ड हाईकोर्ट जज एम एस लिब्राहन की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई गयी।
अभी तक पूजा और नमाज़ को लेकर कोर्ट में वाद दायर किये गए थे लेकिन 2002 में मस्जिद परिसर की 2.77 एकड़ जमीन पर अधिकार को लेकर इलाहबाद हाई कोर्ट में केस दाखिल किया गया जिस पर कोर्ट ने भारतीय पुरातत्व विभाग को मस्जिद की ज़मीन की खुदाई करने का आदेश दिया।2003 में विभाग ने कोर्ट में अपनी रिपोर्ट सौंपी।
जून 2009 में लिब्राहन कमिशन ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी जिसमे भाजपा समेत कई हिंदूवादी नेताओं को मस्जिद गिराने के लिए उकसाने का दोषी बताया गया।
2010 में हाई कोर्ट ने पुरातत्व विभाग की रिपोर्ट के आधार पर अपना फैसला दिया। तीन जजों में से दो ने यह माना कि मंदिर को तोड़ कर मस्जिद को बनाया गया और हिन्दू श्रद्धालुओं द्वारा हमेशा से ही उस स्थान को पूजा जाता रहा था वहीं तीसरे जज ने मंदिर गिराने की बात को ख़ारिज करते हुए माना कि मस्जिद एक खंडर पर बनायी गयी।
2-1 के बहुमत से ज़मीन को तीन हिस्सों में बाटने का आदेश दिया गया जिसमें से मुख्य भाग को, जिस पर मस्जिद थी, को हिन्दू पक्ष को दिया गया।
इस फैसले से असंतुष्ट सभी पक्षकार SC में गए और SC ने हाई कोर्ट के फैसले को निलंबित कर दिया। 2019 में मध्यस्तता का मौका देने के बाद SC में लगातार सुनवाई हुई और 9 नवंबर 2019 को कोर्ट ने अपने आदेश में पुरातत्व विभाग की रिपोर्ट को उद्धत करते हुए कहा कि मस्जिद के नीचे पाये गए अवशेष इस्लामिक वास्तुकला से संबंधित नहीं थे और 2.77 एकड़ जमीन को राम लाल को देने का फैसला किया। साथ ही मस्जिद के विध्वंस को कानून के विरूद्ध बताते हुए और पूर्ण न्याय करने के लिए कोर्ट ने संविधान द्वारा दी गईं अपनी विशेष शक्तियों का इस्तेमाल किया और मुस्लिम पक्ष को भी अयोध्या में 5 एकड़ जमीन देने का फैसला किया।
मस्जिद विध्वंस का मामला अभी भी कोर्ट में है और आरोपियों के बयान दर्ज करने की प्रक्रिया चल रही है।
सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने न्यायिक इतिहास के इस सबसे लंबे विवाद को ख़त्म तो कर दिया है लेकिन मंदिर-मस्जिद निर्माण और इससे जुड़ी राजनीति संभवतः आने वाले समय में भी भारतीय समाज को प्रभावित करती रहेगी।
नोट लेखक के अपने निजी विचार है