दक्षिण एशिया में आतंकवाद के नेटवर्क को होगा तोड़ना

दक्षिण एशिया में आतंकवाद के नेटवर्क को होगा तोड़ना
21 वीं सदी की शुरुआत से जो तालिबान दुनियाभर में आतंकवाद का सबसे बड़ा पर्याय बना हुआ है, जिसने 9/11 से लेकर 26/11 तक हुए तमाम आतंकवादी हमलों को अंजाम दिया। उसी तालिबान के सामने दुनिया की महाशक्ति अमेरिका ने बीते साल हार मानकर सरेंडर कर दिया ।
गौरतलब है कि द वाशिंगटन पोस्ट में छपी अफगानिस्तान पेपर्स की रिपोर्ट के अनुसार बीते दो दशक में अमेरिका ने अफगानिस्तान में तालिबान का सफाया करने के लिए बीते दो दशकों में पानी की तरह धन बहाया है। आंकङों की मानें तो अफगानिस्तान में अब तक 2400 से अधिक अमेरिकी सैनिक मारे गए हैं। वहीं 20000 से अधिक सैनिक बुरी तरह से घायल हुए हैं।यूएस डिपार्टमेंट ऑफ डिफेंस के मुताबिक अमेरिका ने अक्टूबर 2001 से सितंबर 2020 के बीच 19 वर्षों के अफगानिस्तान में अपनी रणनीति पर अब तक लगभग 900 बिलियन डॉलर खर्च कर चुका है।
इसके अलावा अफगानिस्तान के एक लाख से ज्यादा लोग अब तक तालिबान समस्या के कारण मारे जा चुके है। इन सभी आंकड़ों के सामने आने के बाद अमेरिका ने बीते साल दोहा में हुए एक त्रिपक्षीय शांतिवार्ता में उस तालिबान से हाथ मिला लिया जिसे वो खुद आतंकी संगठन घोषित कर चुका है।
उल्लेखनीय है कि बीते साल 29 फरवरी को दोहा में हुए समझौते के दौरान तीनों प्रमुख पक्षों अमेरिका , अफगानिस्तान सरकार और तालिबान ने आपस में कुछ शर्तें रखीं हैं । जिसमें प्रथम शर्त के अनुसार अफगानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों को 14 महीने में अफगानिस्तान छोड़ना पड़ेगा। फिलहाल अमेरिका अपने वादे के मुताबिक धीरे धीरे सैनिकों की अफगानिस्तान से घर वापसी करा रहा है। वहीं समझौते के दूसरे और सबसे प्रमुख शर्त के अनुसार तालिबान को आंतक के रास्ते को छोड़ना होगा।
लेकिन समझौते के बाद से लेकर आज तक अफ़ग़ानिस्तान में आधा दर्जन से अधिक आतंकी हमलें हुए हैं। और इन हमलों का जिम्मेदार प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से तालिबान को ही रहा है। वहीं समझौते के तीसरे शर्त के अनुसार तालिबान अपने कब्जे में रखे 1000 अफगानी सैनिकों को रिहा करेगा ।
जिसके बदले में अफगानिस्तान सरकार को भी 5000 तालिबानी लड़ाकों को रिहा करना होगा, फिलहाल दोनों पक्षों के द्वारा अपने अपने वादे को अभी तक पूरा नहीं किया जा सका है।
तालिबान और अमेरिका के बीच समझौते को एक वर्ष से अधिक का समय हो गया है लेकिन अफगानिस्तान में अभी भी कुछ नहीं बदला या फिर कहें तो स्थिति अब पहले से भी खराब हो गई है। सूत्रों का कहना है अफगानिस्तान में एक बार फिर से 90 के दशक वाले हालात बनने लगे हैं।
अफगानिस्तान में अल्पसंख्यक समुदाय के धार्मिक स्थलों पर एक वर्ष के भीतर सैकड़ो हमले चुकें हैं। जिसमें हजारों की संख्या में निर्दोष नगरिक मारे गए हैं।
जैसा कि हम जानते हैं कि पाकिस्तान ने पूर्व में अफगानिस्तान – भारत संबंधों में दरार डालने के लिए तालिबान को पोषित किया और उसे बढ़ावा दिया साथ ही तालिबानियों को हथियार व आर्थिक मदद भी पाकिस्तान चीन के सहयोग से देता रहा है क्योंकि चीन भी भारत- अफग़ानिस्तान व ईरान की सरकारों के दृढ़ इच्छाशक्ति से पूरे हुए त्रिपक्षीय चाबहार समझौते और भारत के महत्वाकांक्षी परियोजना नार्थ- साउथ कारिडोर से मध्य एशिया में भारत के बढ़ते दबदबे से भयभीत रहा है चूंकि मध्य एशिया के देश चीन के लिए एक बड़ा बाजार है। और वो नहीं चाहता कि भारत वहाँ मध्य एशिया के देशों से व्यापारिक संबंध स्थापित करें।
इसलिए तालिबान को बढ़ावा देकर, भारत के लिए मध्य एशिया में भूमिगत व्यापार में रुकावट पैदा करना चाहता है ।अमेरिका के द्वारा अफगानिस्तान से हटने के ऐलान होने के बाद से कुछ पाकिस्तानी आतंकवादी संगठनों के साथ कुख्यात आतंकी संगठन आईएसआईएस, अल-कायदा को अपना एक नया सुरक्षित ठिकाना अफगानिस्तान के रूप में मिल गया है । वे वहां बैठकर भारत समेत अन्य दक्षिण एशियाई देशों में लगातार आतंकी हमले की योजना बनाते रहते हैं
नतीजा है कि समझौते के बाद से ही कश्मीर में आतंकी गतिविधियों में लगातार बढ़त देखी जा रही हैं वैसे तो इन आतंकवादी संगठनों का प्रमुख लक्ष्य भारत का अभिन्न अंग कश्मीर दशकों से रहा है क्योंकि बीते वर्ष भारत सरकार ने कश्मीर से धारा 370 को खत्म करके भारत और कश्मीर के बीच खड़ी दीवार को गिरा दिया।
जिसके बाद से पाकिस्तान व उसके आतंकी संगठन बौखलाए हुए हैं। ऐसे में आने वाले समय में आईएसआईएस ,तालिबान व अल-कायदा जैसे खतरनाक आतंकी संगठनों के एक साथ आ सकते हैं।
भारत समेत पूरे दक्षिण एशिया में आतंकवाद के एक नए युग की शुरुआत होने की आशंका है। इन आतंकवादी संगठनों के महागठजोड़ का प्रमुख लक्ष्य ग़ज़वा-ए-हिंद करना रहा है क्योंकि इन सभी संगठनों का जन्म ही इसी संकल्प के साथ हुआ है ।
पत्रिका ने यह भी घोषणा की है कि दक्षिण एशिया में हम अपने जिहाद फैलाने के मकसद में कामयाब हो कर ही दम लेंगे। गौरतलब है कि इन दोनों ही आतंकी संगठनों का तालिबान से बहुत ही करीबी संबंध रहा है। ऐसे में समझौता के पूरा होने के बाद की इन गतिविधियों को देखकर अब यही लगता है कि आने वाले समय में इस समझौते का भारत पर एक बड़ा प्रभाव पड़ने वाला है क्योंकि पाकिस्तान की इमरान सरकार का तालिबान से याराना जगजाहिर है ।पाकिस्तान भारत में आतंक फ़ैलाने के लिए तालिबान को माध्यम के रूप में सदियों से प्रयोग भी करता रहा है।
गौरतलब है कि भारत में आतांकवाद फैलाने वाले आतंकी संगठनों को पाकिस्तान सदियों से पनाह देता रहा है। परंतु पिछले कुछ वर्षों में मोदी सरकार की कूटनीति से बने अंतरराष्ट्रीय दबाव के कारण अब वो अपने इन खतरनाक आतंकी संगठनों को पाकिस्तान में नहीं रखना चाहता है। इसलिए वो अपने इन आतंकी संगठनों का एक प्रकार से तालिबान में विलय कर देना चाहता है। पाकिस्तान ने उत्तर कोरिया को परमाणु हथियार बनाने में मदद कर चुका है आज उसका परिणाम भी हमारे सामने है, ऐसे में अफगानिस्तान में आने वाले समय में अगर सत्ता की बागडोर तालिबान के हाथ में आती है तो भारत के लिए स्थितियां चुनौतीपूर्ण होंगी क्योंकि समझौते के बाद से ही खतरनाक आतंकी संगठन आईएसआईएस का अफगानिस्तान में दखल बढ़ा है,और प्रारंभ से ही आईएसआईएस का मध्य एशिया के बाद दूसरा लक्ष्य दक्षिण एशिया के देश ही रहे हैं। भारत ने अब तक अफगानिस्तान सरकार को करीब तीन अरब डॉलर की मदद दी है। जिससे वहां संसद भवन, सड़कों और बाँध आदि का निर्माण हुआ है। भारत सरकार ने अफ़ग़ानिस्तान में विभिन्न परियोजनाओं में अरबों डॉलर का निवेश कर रखा है। संसार में सबसे अधिक विरोध भारत ने पिछले तीन दशकों से किया है वहीं तालिबान के साथ मिलकर पाकिस्तान और चीन भारत के विरुद्ध मोर्चाबंदी करने में लगे हुए है।
तालिबान और पाकिस्तान के मिलीभगत से हुए कंधार विमान अपरहण का दंश हम झेल चुके हैं, उस समय मज़बूर होकर हमें खतरनाक आतंकियों को छोड़ना पड़ा था, अमेरिका तालिबान के सामने घुटने टेक
चुका है
सर्वविदित है कि अफगानिस्तान सरकार प्रारंभ से ही अमेरिका-तालिबान के बीच हो रही शांति वार्ता के खिलाफ रही है।
उल्लेखनीय है कि राष्ट्रपति अशरफ गनी ने समझौते की प्रक्रिया शुरू किए जाने से पहले ही कह दिया था कि बेगुनाह लोगों की हत्या करने वाले समूह से शांति समझौता निरर्थक है। इसलिए भारत को अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी के और रूस के सहयोग से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी कूटनीति के द्वारा तालिबान – पाकिस्तान और चीन के इस महागठजोड़ को अलग-थलग कर देना होगा, अन्यथा आने वाले दिनों में तालिबान – आईएसआईएस – अल-कायदा का यह महागठजोड़ पूरे दक्षिण एशिया के लिए सबसे बड़ी चुनौती के रूप में हमारे सामने खड़ी हो सकती हैं ?
By आकाश सिंह
छात्र – “सेंटर ऑफ़ मीडिया स्टडीज, इलाहाबाद विश्वविद्यालय”