1857 आंदोलन के स्वतंत्रता सेनानियों की अनछुए पहलू पर अंतरराष्ट्रीय सेमिनार

1857 आंदोलन के स्वतंत्रता सेनानियों की अनछुए पहलू पर अंतरराष्ट्रीय सेमिनार
By सुशील कुमार
लंढौरा 1857 का स्वतंत्रता संग्राम केवल सैनिकों तक ही सीमित नहीं था बल्कि यह एक समग्र क्रांति थी। स्वतंत्रता संग्राम की बहुत सारी घटनाएं इतिहास में दर्ज नहीं हो पाई क्योंकि अंग्रेजों ने इस क्रांति को एक सैनिक विद्रोह के रूप में दर्ज कराने का प्रयास किया।
ये बातें चमन लाल महाविद्यालय लंढौरा में दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी के प्रथम दिन मुख्य अतिथि के रूप में भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद के सदस्य सचिव प्रोफेसर श्री कुमार रत्नम ने कहीं। उन्होंने कहा की हमारे इतिहास के पुनर्निर्माण की आवश्यकता है जिसके लिए हमें पश्चिमी इतिहासकारों के आकर्षण से बचकर लोकल एवं रीजनल स्तर पर प्राप्त प्रमाणों सहायता लेनी होगी।
अपने संबोधन में प्रोफेसर रत्नम ने क्षेत्रीय स्तर पर भारतीयों द्वारा किए गए आंदोलनों की चर्चा की जिनका जिक्र सामान्य रूप में इतिहास में नहीं किया गया। मुख्य वक्ता चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय मेरठ के प्रोफेसर पवन कुमार ने कहा कि अट्ठारह सौ सत्तावन के स्वतंत्रता संग्राम की पृष्ठभूमि काफी पहले से तैयार हो रही थी। 1773 सन्यासी आंदोलन के अलावा स्वामी दयानंद के गुरु विरजानंद, स्वामी पूर्णानंद, स्वामी ओमानंद आदि ने भारत की स्वतंत्रता के लिए काम किया था ये बातें भारतीय इतिहास का हिस्सा नहीं बन पाई। उन्होंने कहा कि अट्ठारह सौ सत्तावन का आंदोलन किसी क्षेत्र का आंदोलन नहीं था बल्कि यह पूरे भारत में फैला था। यह आंदोलन किसी एक वर्ग तक सीमित नहीं रहा बल्कि यह एक संपूर्ण जन क्रांति का रूप धारण कर चुका था।
अंग्रेजों ने अट्ठारह सौ सत्तावन के स्वतंत्रता संग्राम को विद्रोह कहकर इसे दबाने की कोशिश की और बहुत सारी घटनाओं को इतिहास में शामिल ही नहीं होने दिया। कार्ल मार्क्स ने अट्ठारह सौ सत्तावन की भारतीय क्रांति को स्वतंत्रता संग्राम के रूप में स्वीकार किया है। विशिष्ट वक्ता डॉ आशुतोष भटनागर ने कहा कि यह अवसर है कि हम ऐसे लोगों को भी इतिहास में शामिल कर ले जिनका नाम हम इतिहास में दर्ज कराने से चूक गए थे। उन्होंने कहा प्रथम स्वाधीनता संग्राम से पहले लगभग डेढ़ सौ संघर्ष हो चुके थे।
जिनमें लाखों लोगों ने अपने प्राण न्योछावर किए। उन्होंने कहा कि अट्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति से जुड़े विभिन्न पहलुओं को सामने लाने के लिए बड़े स्तर पर शोध की आवश्यकता है। प्राचार्य डॉ सुशील उपाध्याय ने कहा की आजादी के इतने समय बाद भी हमारे सामने बहुत सारे ऐसे प्रश्न हैं जिनके उत्तर खोजा जाना शेष है यह सच है कि इतिहास आज की पुनर्रचना की जा रही है और इसकी आवश्यकता इसीलिए महसूस की गई क्योंकि अंग्रेजों ने अपने हितों के लिए बहुत सारी घटनाओं को इतिहास में सम्मिलित ही नहीं होने दिया। अट्ठारह सौ सत्तावन का स्वाधीनता संग्राम भारतीय समाज के हर वर्ग का संघर्ष था और इस संघर्ष में भारतीयों में अंग्रेजो के खिलाफ एक जागृति पैदा की और यही जागृति भारत की स्वाधीनता का आधार बनी।
इससे पूर्व संगोष्ठी के संयोजक डॉ निशू कुमार ने संगोष्ठी की रूपरेखा प्रस्तुत करते हुए बताया कि अट्ठारह सौ सत्तावन के स्वतंत्रता संग्राम में ऐसे बहुत से लोग रहे जिन्होंने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया किंतु किन्ही कारणों से इतिहास में अपना नाम नहीं लिखा सके। यह संगोष्ठी ऐसे ही लोगों का नाम सामने लाने का प्रयास है और यदि हम इस कार्य में सफल होते हैं तो यह उनके लिए हमारी ओर से श्रद्धांजलि होगी। आयोजन सचिव डॉ सूर्यकांत शर्मा ने वक्ताओं एवं शोधार्थियों का धन्यवाद ज्ञापित किया। मंच संचालन डॉक्टर नवीन कुमार ने किया। इस अवसर पर अतिथियों ने डॉ नीशु कुमार एवं डॉ सूर्यकांत शर्मा द्वारा संपादित पुस्तक ‘1857 के स्वतंत्रता संग्राम के अनछुए पहलू : एक विश्लेषण’ का विमोचन किया। संगोष्ठी में देश विदेश से आए शोधार्थियों ने अपने शोध पत्र भी प्रस्तुत किए। इस अवसर पर डॉ अपर्णा शर्मा, डॉ विधि त्यागी, डॉ धर्मेंद्र कुमार, डॉ नवीन कुमार, डॉ हिमांशु कुमार, डॉ किरण शर्मा डॉ मीरा चौरसिया डॉ अनीता शर्मा, डॉ नीतू गुप्ता, डॉ देव पाल आदि उपस्थित रहे।