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Big news हिमालय पर जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव का संकेत है गर्म सर्दी

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हिमालय पर जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव का संकेत है गर्म सर्दी

नई दिल्ली, 04 फरवरीः

पिछले दो वर्ष से भारत में सर्दियां अपेक्षाकृत गर्म हो रही हैं। इस वर्ष भी बारिश और बर्फ सर्दियों की शुरुआत से ही कम हुई है। बदलती जलवायु का गहन अध्ययन करने वाली संस्था क्लाईमेट ट्रेंड्स की ताजा रिपोर्ट कहती है कि फरवरी में जरूर थोड़ी बारिश-बर्फबारी हुई, लेकिन यह भी सर्दी में वर्षा की कमी को पूरा करने के लिए काफी नहीं लगती है। विश्व भर के वैज्ञानिको का मानना है कि मौसम का यह बदलता रुख प्रमुख रूप से जलवायु परिवर्तन के कारण ही है और इस वैश्विक आपदा का सर्वाधिक प्रभाव हिमालय पर ही पड़ेगा।
आंकड़े बताते हैं कि 1 जनवरी से 29 फरवरी 2024 के बीच पूरे देश में कुल मिलाकर 33 प्रतिशत कम बारिश हुई है। सर्दियों के मौसम में सामान्य तौर पर 39.8 मिलीमीटर बारिश होती है, लेकिन इस बार सिर्फ 26.8 मिलीमीटर बारिश दर्ज की गई है। विशेषज्ञों के अनुसार बढ़ती हुई ग्लोबल वार्मिंग मौसम का पैटर्न बदल रही है, जिससे तापमान और बारिश के तरीकों में भी असमानताएं पैदा हो रही हैं।

भारत के मौसम के लिहाज से बेहद अहम माना जाने वाला पश्चिमी विक्षोभ इस साल ज्यादातर ऊपरी अक्षांश (अपर लैटीट्यूड) वाले क्षेत्रों में ही सीमित रहा जिससे पश्चिमी हिमालय में इसका प्रभाव कम रहा। पश्चिमी विक्षोभ सर्दी का मौसम लाने और उत्तर-पश्चिम भारत व मध्य भारत के क्षेत्रों में मौसम गतिविधियों को सक्रिय करने के लिए जाना जाता है। इस वर्ष सर्दी में पश्चिमी विक्षोभों की तीव्रता और बारंबारता कम रही है।
आइए महीनों के लिहाज से समझें कि इस वर्ष भारत में कैसा रहा सर्दी का मौसमः

दिसंबर: यह माह अधिक तापमान के साथ शुरू हुआ। बारिश और बर्फबारी भी नहीं हुई। इस कारण पूरे उत्तर-पश्चिमी मैदानी इलाकों और पहाड़ी राज्यों में सर्दी का मौसम देरी से आया। 18.9 मिमीमीटर के सामान्य औसत की तुलना में इस महीने 6.6 मिमीमीटर बारिश ही दर्ज की गई, जिसके परिणामस्वरूप बारिश में 65% की कमी आई।

जनवरी: इस महीने चार पश्चिमी विक्षोभ आए, इनमें से केवल एक (28 से 31 जनवरी) पश्चिमी हिमालय और उसके आसपास के मैदानी इलाकों में बारिश या बर्फबारी का कारण बना। बाकी तीन कमजोर थे और इस क्षेत्र को अधिक प्रभावित नहीं कर सके। सर्दी के मुख्य महीने जनवरी में उत्तर-पश्चिम भारत में सामान्यतः 33.8 मिमीमीटर के मुकाबले केवल 3.1 मिमीमीटर बारिश दर्ज की गई। इसके चलते 91% की बारिश की कमी हुई, जो वर्ष 1901 के बाद इस माह दूसरी सबसे कम बारिश है।
फरवरी: जनवरी की तुलना में फरवरी की शुरुआत अच्छी रही और इस दौरान अधिक पश्चिमी विक्षोभ के कारण उत्तर-पश्चिम भारत के पहाड़ी क्षेत्रों और मैदानी इलाकों में बारिश और बर्फबारी हुई। कुल मिलाकर इस महीने आठ पश्चिमी विक्षोभ आए, जिनमें से छह सक्रिय रहे। इससे 31 जनवरी तक 58 प्रतिशत रही बारिश की कमी को कम करने में मदद मिली, जो 29 फरवरी को घटकर 33 प्रतिशत रह गई। एक पहलू यह भी है कि इस महीने व्यापक वर्षा के बावजूद अधिकतम और न्यूनतम तापमान सामान्य औसत से अधिक रहे।

बदलता मौसम: न्यूनतम तापमान में वृद्धि
मौसम के विभिन्न रुझानों में देखा जा सकता है कि पृथ्वी का वातावरण बदल रहा है। इसमें तापमान में वृद्धि भी शामिल है। न्यूनतम तापमान का बढ़ना चिंताजनक है। इससे कई नकारात्मक परिणाम सामने आ सकते हैं, जैसे गर्मी का बढ़ना, फसल चक्र में व्यवधान और पारिस्थितिकी प्रणालियों में परिवर्तन।

फरवरी 2024 में वर्ष 1901 के बाद से दूसरा सबसे न्यूनतम तापमान दर्ज किया गया, जबकि मौसम विभाग द्वारा आंकड़े दर्ज करना शुरू करने के बाद से अब तक इस बार जनवरी में चौथा सबसे न्यूनतम तापमान दर्ज किया गया। ये रुझान अलग-अलग घटनाएं नहीं हैं, बल्कि एक बड़े पैटर्न का हिस्सा हैं।
अल नीनो की भूमिका

अल नीनो प्रशांत महासागर में औसतन हर दो से सात वर्ष में विकसित होने वाली एक महासागरीय घटना है। यह आमतौर पर नौ से 12 महीने तक चलती है। अल नीनो की स्थिति तब उत्पन्न होती है जब भूमध्यरेखीय प्रशांत महासागर में सतह का जल औसत से अधिक गर्म हो जाता है। इसे हमेशा औसत से कम मानसून, गर्म सर्दियों और धुंध वाले दिनों के साथ जोड़ा जाता है। भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) के महानिदेशक मृत्युंजय महापात्रा कहते हैं, “हालांकि कोई नियम पुस्तिका नहीं है, लेकिन अगर अल नीनो की स्थिति है, तो उष्ण कटिबंधीय (ट्रापिकल) क्षेत्र के पास गर्म हवा बढ़ जाती है और यह ठंडी हवा को उत्तर की ओर धकेलती है। इसलिए यह भारतीय क्षेत्र में पश्चिमी विक्षोभों का मार्ग सीमित कर देता है। अल नीनो जैसी घटनाओं के कारण, न्यूनतम तापमान सामान्य से अधिक रहा, जिससे देश में सर्दी का मौसम गर्म बन गया।”

मौसम को गर्म करने का एक अन्य पहलू महासागर के तापमान में लगातार वृद्धि होना है। भारतीय मौसम विभाग के एक शोध के अनुसार अरब सागर और बंगाल की खाड़ी में समुद्री सतह का तापमान (एसएसटी) बढ़ रहा है। भूमि की सतह के तापमान और समुद्री सतह के तापमान के बीच मजबूत संबंध होता है जो गर्म समुद्री जल की महत्वपूर्ण भूमिका का संकेत करता है। इसके पड़ोसी क्षेत्रों पर महत्वपूर्ण जलवायु प्रभाव हो सकते हैं। उष्ण कटिबंधीय क्षेत्र में एसएसटी बढ़ गया है और समुद्र के पानी के तापमान में इस वृद्धि की प्रतिक्रिया के रूप में उष्णकटिबंधीय भूमि की सतह और उष्णकटिबंधीय क्षोभमंडल (ट्रोपोस्फियर) के तापमान में भी वृद्धि हो रही है।

अनियमित पश्चिमी विक्षोभ का प्रभाव
पश्चिमी विक्षोभ हवा में परेशानियां पैदा करने वाली घटना होती है। यह मूल रूप से पश्चिम से उत्पन्न होती हैं और सर्दियों के दौरान ऊपरी वायुमंडल में यात्रा कर भारतीय उपमहाद्वीप में पहुंचती हैं। दिसंबर से फरवरी के दौरान ये घटनाएं सबसे अधिक होती हैं, प्रति माह औसतन 4-5 बार। पश्चिमी हिमालय के आकार के साथ पश्चिमी विक्षोभों का परस्पर प्रभाव वर्षा के वितरण को निर्धारित करता है। इसलिए जलवायु परिवर्तन की भूमिका और पश्चिमी विक्षोभों पर इसके प्रभाव को समझना बहुत महत्वपूर्ण है।

वैज्ञानिकों के अनुसार अधिक संवहन और ग्लोबल वार्मिंग के कारण बढञे तापमान से पश्चिमी विक्षोभ कमजोर हो रहे हैं। डा. मोपात्रा कहते हैं “वर्ष 1990 के बाद के आंकड़ों के अनुसार, एक रुझान है कि दिसंबर से फरवरी के लिए पश्चिमी विक्षोभों की आवृत्ति कम हो रही है। यही बात वर्षा में भी देखी जा रही है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण उप-उष्णकटिबंधीय उच्च क्षेत्र भी उत्तर की ओर खिसक रहा है, जिसके कारण पश्चिमी विक्षोभ भी उत्तर की ओर खिसक रहे हैं औऱ उत्तर-पश्चिम भारत पर वर्षा को प्रभावित कर रहे हैं। यदि यह उत्तर की ओर जाता है, तो पश्चिमी विक्षोभों की आवृत्ति, तीव्रता और गति भी प्रभावित होगी।”
मौसम का आकलन करने वाली संस्था स्काईमेट वेदर के उपाध्यक्ष महेश पलावत कहते हैं कि आर्कटिक क्षेत्र में गर्म हवाओं की घटनाएं अब आम हो गई हैं। इस वजह से एशिया क्षेत्र के मौसम पर भी असर पड़ रहा है। पिछले और इस सीजन में भी ऐसा ही हुआ है। बढ़ती आर्कटिक गर्मी की वजह से पश्चिमी विक्षोभ सहित मौसम प्रणालियां उत्तर की ओर चली गईं, जिससे वे भारत के मौसम को प्रभावित नहीं कर सकीं।”
हिमालय में झीलों में वृद्धि संभावित आपदा का खतरा
जलवायु परिवर्तन इस कारण ग्लेशियरों के पिघलने से पूरे हिमालय में नई झीलों का निर्माण और मौजूदा झीलों का विस्तार हुआ है। इनमें से कई झीलें नीचे की ओर स्थित समुदायों और बुनियादी ढांचे के लिए हिमनद झील फटने के कारण आने वाली बाढ़ (GLOF) का खतरा पैदा कर सकती हैं। हिमालयी क्षेत्र में हिमनद झीलों की संख्या वर्ष 1990 में 4,549 (398.9 वर्ग किमी) से बढ़कर वर्ष 2015 में 4,950 (455.3 वर्ग किमी) हो गई।

जलवायु परिवर्तन से बनी झीलों की निगरानी
• कई बड़े अध्ययन इस बात की पुष्टि करते हैं कि एशिया भर में हिमनद झीलों की संख्या बढ़ रही है। इनमें बताया गया है कि जम्मू और कश्मीर, अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम में जलवायु परिवर्तन के कारण बनी झीलों की संख्या ज्यादा है। इनकी निगरानी ज़रूरी है। अध्ययन के अनुसार जम्मू और कश्मीर में सबसे ज्यादा झीलें हैं। सड़क और आबादी के लिए सबसे ज्यादा खतरा जम्मू और कश्मीर में है। झीलें श्रीनगर घाटी और उसके आसपास घनी आबादी वाले क्षेत्रों को प्रभावित कर सकती हैं। कृषि भूमि और जल विद्युत परियोजनाओं के लिए सबसे ज्यादा खतरा अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम में है। अध्ययन में कुछ झीलों की जांच की सिफारिश की गई है।
• सिक्किम – 13 झीलें
• हिमाचल प्रदेश – 5 झीलें
• जम्मू और कश्मीर – 4 झीलें
• उत्तराखंड – 2 झीलें
• अरुणाचल प्रदेश – 1 झील
हिमनदों पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव
रिपोर्ट के अनुसार धरती के गर्म होने से ग्लेशियरों पर असर पड़ेगा। 2 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ने पर अधिकांश हिमनद खत्म हो सकते हैं। हिमालय क्षेत्र में भी आधे से ज्यादा हिमनद खत्म हो सकते हैं। 3 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा तापमान बढ़ने पर लगभग सभी हिमनद खत्म हो सकते हैं। रिपोर्ट में बताया गया है कि कम उत्सर्जन करने से हिमालय क्षेत्र में हिमनदों को बचाया जा सकता है। ग्लेशियरों के पिघलने से पानी की कमी हो सकती है। हिमस्खलन का खतरा बढ़ सकता है। सर्दी के महीनों में गर्म तापमान रहने पर हिमस्खलन की आशंका सबसे ज़्यादा होती है। क्लाईमेट ट्रेंड्स की अपील और सुझाव है कि हमें भविष्य के लिए अभी से तैयारी करने की ज़रूरत है। ग्लेशियरों को बचाने के प्रयास भी ज़रूरी हैं।

 

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